अंधी-सुरंग -२
छतीसगढ़िया सबले बढ़िया प्रायः इसी जुमले से शुरू होता है आम छत्तीसगढ़िया का सफ़र , जो आगे जाकर राजनीति की अंधी गलियों में टकराकर दम न भी तोड़े तो पस्त ज़रूर हो जाता है । छत्तीसगढ़िया यानी सीधे-साधे , भोले-भाले वह इंसान जो अव्यवस्था को भी ईश्वर की मर्ज़ी मानकर चुप बैठ जाता है । जियो और जीने दो की संस्कृति को आत्मसात कर सबको अपने जैसा समझने वाले बुधारु को हर दो -चार में अपनी ज़मीन बेचनी पड़ती है , कभी शादी के नाम पर तो कभी मरनी - हरनी।बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के नाम पर भी उसे ज़मीन बेचनी पड़ी। बुधारु जैसे दर्द को समेटे कितने लोग ऊपर जा चुके , लेकिन न व्यवस्था बदली न तक़दीर। हर छोटे काम के लिए रिश्वत देते थक चुके बुधारु से कहा गया कि जब तक राज्य नहीं बनेगा , कुछ नहीं बदलेगा। राज्य निर्माण के आंदोलन के लिए उसने भी इस उम्मीद में अपनी पूँजी लगाई कि राज्य बनते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। धरना, प्रदर्शन, आंदोलन , बंद हर जगह बुधारु की उपस्थिति इस तरह से होती मानो उसके बग़ैर यह सब संभव ही नहीं था । अखबारो में भी यदा-कदा बुधारु का नाम छप जाता तो वह दोगुने उत्साह से राज्य निर्माण ...