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अंधी-सुरंग -२

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छतीसगढ़िया सबले बढ़िया  प्रायः इसी जुमले से शुरू होता है आम छत्तीसगढ़िया का सफ़र , जो आगे जाकर राजनीति की अंधी गलियों में टकराकर दम न भी तोड़े तो पस्त ज़रूर हो जाता है ।  छत्तीसगढ़िया यानी सीधे-साधे , भोले-भाले वह इंसान जो अव्यवस्था को भी ईश्वर की मर्ज़ी मानकर चुप बैठ जाता है । जियो और जीने दो की संस्कृति को आत्मसात कर सबको अपने जैसा समझने वाले बुधारु को हर दो -चार में अपनी ज़मीन बेचनी पड़ती है , कभी शादी के नाम पर तो कभी मरनी - हरनी।बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के नाम पर भी उसे ज़मीन बेचनी पड़ी। बुधारु जैसे दर्द को समेटे कितने लोग ऊपर जा चुके , लेकिन न व्यवस्था बदली न तक़दीर। हर छोटे काम के लिए रिश्वत देते थक चुके बुधारु से कहा गया कि जब तक राज्य नहीं बनेगा , कुछ नहीं बदलेगा। राज्य निर्माण के  आंदोलन के लिए उसने भी इस उम्मीद में अपनी पूँजी लगाई कि राज्य बनते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। धरना, प्रदर्शन, आंदोलन , बंद हर जगह बुधारु की उपस्थिति इस तरह से होती मानो उसके बग़ैर यह सब संभव ही नहीं था । अखबारो में भी यदा-कदा बुधारु का नाम छप जाता तो वह दोगुने उत्साह से राज्य निर्माण के लिए भीड़ जा

अंधी-सुरंग -१

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भूमिका  उपन्यास क्या वर्तमान राजनीति की एक सच्ची कहानी है, जो राजनैतिक दलों के भीतर फल-फूल रहा है । नैतिकता , विश्वसनीयता और निष्ठा का एक ऐसा विद्रुप चेहरा जो भयावह होकर भी स्वीकार्य है और आम जनता विकल्प के अभाव में बेबस है । राजनैतिक दलों का सत्ता के लिए इस्तेमाल होते नए नए जुमलों में आम आदमी किस तरह फँस जाता है ? आज़ादी के इतने सालों बाद भी बुनियादी ज़रूरतों को पूरी करने की बजाय सत्ता किस तरह आम लोगों को नाच नचाती है , वह किससे छिपा है। - कौशल तिवारी

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